Ghazal by Anupam Sharma

डरता हूं खुदसा होने में
सो डर है मुझको रोने में

डोने भर पाई है खुशियां
पाया है छेद भी डोने में

टकराना पड़ता लहरों से
इक नाव को नौका होने में

गर काट रहे विष इसमें क्या
क्यूं ध्यान रखा ना बोने में

हर तरफ से चुभ ही जाता है
मुझसी ही कमी है तिकोने में

पुरुषत्व को कम करना पड़ता
नर को नारिश्वर होने में

सबने मुझको खिसकाया पर
कोना कितना हो कोने में

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